पल दो पल निकल गए, कल भी कल पर रुक गया.
वृक्ष सा मैं वहां, रुका रहा, खड़ा रहा.
आये-गए, वोह सर्द-गर्म-बारिशों के मौसम,
मैं वहां, था जहां, रुका रहा, खड़ा रहा.
जब चला, मीलों चला, गिरा उठा, आगे बढ़ा .
ज़िन्दगी की नयी सुबह को मांगते ही शाम हुई.
ये ज़िन्दगी जो मांगती , जो चाहती , वोह तुम ही थे,
तुम चले, ना रुके, आगे बढ़े,
मैं वहीँ वृक्ष सा, रुका रहा, खड़ा रहा.
– शांतनु कौशिक